मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ..!
मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ..!
तंज तरकश के तीर को कसने लगा हूँ
जो सीखा रही है सत्ता वो सीख सीखने लगा है
मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ.!
जो बीत रही संख्या बल पर वो महसूस लिखने लगा हूँ मैं वहीं कुछ लिखने लगा हूँ..!
कहाँ गये अच्छे दिन के वादे ,
कहाँ गये वो नेक इरादे..!
सत्ता मे बैठै लोगों से यही बात मैं पूछ रहा हूँ..!
जो बीत रही जनमानस पर. मैं जनमानस की ही पूछ रहा हूँ.!
उनके मर्म की मर्माहत को ही शब्दों में पिड़ो कर लिखने लगा हूँ ..! मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ ..!
मैं .! जब बातें गरीब, नि:सहाय की पूछ रहा तो हमें कुछ लोग बोलते हैं तुम क्यों ये बातें पूछ रहें..!
तो मैंने भी ये बताना शुरू किया
जो कहते थे नारी "अबला" थी..!
है उनको सबला बना दिया .?
तो क्यों देखने, सुनने को आए दिन
मिलती, नाली में मरी पड़ी लड़की..?
क्यों मर रही नवजात लड़कियां.?
क्यों देर शाम को सड़को पर जब हैं सुरक्षित
यही नहीं.!
सत्ता में बैठें लोगों की, हर भेदभाव को
जाहिर करने लगा
है इनके इस महसूस की महफूज लिखने लगा
हूँ, मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ.!
तब भी न माना कहने लगा ये सब बातें साजिश सी है..!
तो मैंने भी बतला दिया, उनकी हर वीडियो फूटेज को है, उनको भी दिखला दिया..!
भूखे , नंगे , बदहाल किसान
की उनकी जुबां ही सुना दिया.!
उनकी नीति और सिद्धांतो की हर बात राज का खोल दिया .!
ये सबकुछ देख, सुन वो मर्माहत , आगबबूला हो उठा
है सत्ता को चुनौती दे डाली
बोला ऐसे मक्कारों की ये जगह नहीं हो सकती जो न समझें कुछ मजबूरी न ही समझे कुछ लाचारी..!
उसने प्रफुल्ल होकर कुछ
यूँ बोला, जो तुम लिखते हो
लिखते रहो.! तंज तरकश के तीर को,
यूँ ही तुम कसते रहो मैं भी तुम्हारे साथ हूँ ..!
देखना एक दिन ऐसा होगा हर दीन- दुखी भी सब जैसा होगा ..!
बदहाल , बदहवास लोगों के हर हाल को लिखने लगा हूँ..!
मैं भी कुछ लिखने लगा हूँ..!
@ महसूस की संजिदगी से