उलझे-सुलझे वैन और मेरा अट्टहास......(चिंतन शिविर से) - ZorbaBooks

उलझे-सुलझे वैन और मेरा अट्टहास……(चिंतन शिविर से)

जब बोलना ही है, तो अपने मन की बोलूंगा, अपने मन की ही लिखूंगा, भले ही किसी को पसंद हो या नहीं। अब किसी के पसंद और नापसंद की बातों से अगर प्रभावित होने लगा तो’ फिर मैं अपनी मन की कर कैसे पाऊँगा और अपने मन की बात करने के लिए तो पूरी दुनिया मरी जा रही है। अब तो’ किसी में भी धैर्य रहा नहीं कि” किसी की बातों को सुने । अब तो, जिसे देखो, अपना ही सुनाना चाहता है, बरबस ही सुनाना चाहता है और इसी सुनाने की धुन में उलझे-सुलझे वैन” परोसता चला जाता है, बस परोसता चला जाता है। तो फिर” मैं ही क्यों पीछे रहूं, मुझे भी तो सुनाना है, अपनी बातों को सुनाना है। भले ही वह लाग लपेट के हो, अथवा बिना लाग लपेट के।

फिर तो’ दुनिया आज-कल इतनी तीव्र गति से बदल रहा है कि” पुछो ही मत। आज का दिन बीता और कल का सवेरा कोई नई बात लिए ही उदित होता है। भले ही उसमें तथ्यों की कमी पाई जाती हो, परन्तु…..नमक-मिर्च के साथ आकांक्छाओं की बहुतायत होती है। भला’ पल-पल बदलते हुए दुनिया के रंगों से मैं अछूता रहूं, ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं हूं। हां जी, मैंने भी उन गुणों को सीख लिया है, जिससे दुनिया को सुनाया जा सके। उन्हें समझाया जा सके कि” देखो मैं कितना उतावला होता जा रहा हूं अपनी बातों को सुनाने के लिए।

अब बात चल ही पङी है, तो बताता चलूं कि” उलझे-सुलझे वैन” का भी अपना एक अलग आनंद है। एक सरस आनंद की अनुभूति’ जिसमें श्रोता के पल्ले भले ही कुछ नहीं आए, किन्तु” वक्ता के हृदय में चरम आनंद की अनुभूति कि” मैने तो अब जो सुनाना था, सुना ही दिया। भले ही श्रोता अभूतपूर्व त्राशदी का अनुभव करें, वक्ता के वाक्य प्रहार से आहत हो जाए। परन्तु… आज के समय में कुशल वक्ता वही है, जो श्रोता के इस तरह के समस्याओं का सिरे से अनदेखा कर दे। वह बस अपनी डफली- अपना राग” का धून छेङने में महारथी हो।

भला’ मैं भी तो इसी समय काल में जी रहा हूं’ तो भला इन दूर्लभ गुणों से अछूता कैसे रह सकता हूं। मैं इतना भी तो मूर्ख नहीं कि” इन अलभ्य गुण संस्कारों” के फायदें से अंजान रहूं। अब उलझे-सुलझे वैन” सुनाने की कला विकसित करने के लिए बहुत सार्थक प्रयास करने परते है, भले ही इसका प्रभाव बिल्कुल ही निरर्थक हो। इन गुणों को अपने में विकसित करने के लिए दिन-रात एक करना होता है, तब जाकर कोई इस में पारंगत हो पाता है। भला’ मैं इन चीजों से अंजान तो नहीं रह सकता, क्योंकि’ मुझे उलझे-सुलझे वैन सुनाने के बाद अट्टहास भी तो करना है।

अमने हृदय कुंज में संतुष्टि के भाव को जागृत भी तो करना है कि” मैंने जो सुनाना था, सुना दिया। भले ही वह सार्थकता का बोधक हो, अथवा निरर्थक नाली के पानी के जैसा प्रवाह। बस’ जो सुनाना था, वह तो सुना ही दिया न, बस इतनी सी अनुभूति भी आत्म-संतुष्टि प्रदान करने बाली होती है। मन को असीम शांति का बोध कराती है। फिर तो” उलझे-सुलझे वैन” सुनाने के लिए भी तो’ एक शैली होनी चाहिए। बिना तरीके के तो कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। बस’ हृदय में अपनी बातों को सुनाने की ललक हो और एक शैली हो, भले ही वह शैली भ्रामक हो और श्रोता को उलझा दे अथवा सुलझा दे।

परन्तु…..वक्ता को इन बातों से बिल्कुल भी मतलब नहीं रखना चाहिए, वह भी इस समय। आज के समय में पल-पल जो बदलाव हो रहे है, ऐसे में ऐसे छोटी-छोटी बातों का मतलब रखना, मतलब कि” अपने ही पैरों पर कुल्हाङी चलाने के जैसा होगा। ऐसे में मैं इतना मुर्ख भी नहीं हूं कि” इन बातों को ध्यान रखने में उलझ जाऊँ। मतलब साफ है, चाहे जो हो जाए, किन्तु” मैं उलझे-सुलझे वैन” सुनाऊंगा और अट्टहास करुंगा।

क्रमश:-

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मदन मोहन'मैत्रेय'