कुरूवंश का दुख
कुंती को मिला वरदान,
पा सकती थी पुत्र, द्वारा किन्ही भगवान।
कर न सकी विश्वास उस वर पर,
आजमाया उसे तेजस्वी सूर्य पर ।
हुए सूर्य प्रकट समक्ष उनके,
दिया एक पुत्र , वर स्वरूप उनके।
था सुसज्जित वह स्वर्ण कवच-कुण्डल से,
सूर्य-सा प्रकाश निकल रहा था उसके तन से।
भगवान ने कहा-” पुत्र मेरा अजेय होगा,
सारे जीवों पर विजयी होगा ।”
कहकर ये शब्द, सूर्य विलीन हो गए,
कुंती को अपना अंश प्रदान गए।
सम्मान था उसको पुत्र से प्यारा,
चाहती न थी सच संसार को बतलाना।
नवजात शिशु को गंगा में बहाकर,
भूल गई अतीत को, महलों में जाकर ।
बहकर , पहुँच गया वह कहीं दूर,
पाकर उसको अधिरथ का मन गया फूल।
सोचा-“माता इसकी कितनी क्रूर होगी ?
जो अबोध बालक को बहा गई होगी।”
बालक बड़ा ही जिज्ञासु था ,
धनुर्विद्या सीखने का अभिलाषी था।
पला था वह निम्न जात में,
अरमान था बैठना रथ में।
दूसरी ओर, कुंती। ब्याही गई पाण्डु से,
विदा की गई कुंतीभोज के घर से।
बन गई , हस्तिनापुर की रानी,
वह सबके लिए थी फिर भी सती कुमारी।
पाण्डु को मिल न सकता था पुत्र का सुख,
यह था कुरुवंश का सबसे बड़ा दुख।
चल पड़े वन में तपस्या करने वे एक दिन,
बीतने लगा जीवन सुख-शांति में दिन-दिन।
पाण्डु को पिता बनने की इच्छा बड़ी सताती थी,
यह बात कुंती जान न पाती थी।
जानने पर आर्य की इच्छा वह अपने ,
लगी उस वर के बारे में सोचने।
जन्म दिया पाँचों पाण्डवों को,
भूल गई थी कुंती ज्येष्ठ पुत्र को।
निधन होने पर पाण्डु के,
वे बड़े बेसहारे से हो चुके।
लौटकर वे हस्तिनापुर को गए,
मिलकर परिजनों से, फूले न समाए ।
राजगद्दी पर धृतराष्ट्र बैठे थे ,
सारे कौरव उसके अभिलाषी थे।
भाइयों में द्वेष बढ़ता गया,
सभी को , गुरुकुल भेजा गया।
अर्जुन ने चुना धनुष , दुर्योधन ने गदा,
दोनों पक्ष पाना चाहते थे, पूर्वजों की अकूत संपदा।
अर्जुन गुरुद्रोण का प्रिय बना,
एकलव्य की असफलता का कारण किया।
सर्वश्रेष्ठ बनने का उसने सोचा,
पर, कहीं से कर्ण आ पहुँचा।
कर्ण ने वेदों का अध्ययन किया,
परशुराम से धनुर्विद्या का जान लिया।
जात अपनी छिपा न सका,
गुरू के श्राप से बच न सका।
द्रोण ने कर्ण को अस्वीकारा,
सोचा- “किसने इसे धनुर्धारी बनाया?”
अर्जुन का गुरूभाई बनकर,
आया था वो उसकी मौत बनकर।
अर्जुन से मुकाबला माँगा ,
सामर्थ्य दिखाने का मौका माँगा।
द्रोण बोले -“पहले अपना नाम बताओ,
कहाँ के राजा हो? सो तो जताओ।”
क्रीड़ास्थल में वह निःसहाय था,
पास उसके , न कोई जवाब था।
तब दुर्योधन भीड़ से बाहर आया,
राजा घोषित कर अंगदेश का मुकुट पहनाया।
कर्ण को एक नया मित्र मिला,
भेंट स्वरूप अंगराज्य मिला ।
पर वह द्रोण के लिए बड़ा दुखदायक था,
यही बात कर्ण के भविष्य का निर्धारक था।
मित्र को उसने एक अटल वचन दिया,
सदैव उसकी ओर रहने का आश्वासन दिया।
भाई-भाई में ईर्ष्या फैल चुकी थी,
सर्वश्रेष्ठ बनने की इच्छा जाग चुकी थी।
राज्य का बँटवारा हुआ,
युधिष्ठिर इंद्रप्रस्त का राजा हुआ।
दुर्योधन को पूरा राज्य पाने की चाह थी,
सामने उसके अधर्म की राह थी।
मारने का उन्हें षड्यंत्र रचाया,
पाण्डवों को लाख के घर में बुलाया।
सुरंग के द्वारा वे बच तो निकले,
पर हर पले अब वे पीड़ा सहते।
भीम का विवाह हिडिंबा से हुआ,
वन का रास्ता थोड़ा सुगम हुआ।
चलकर वे एक गाँव पहुँचे,
हस्तिनापुर से बहुत दूर पहुँचे।
दुर्योधन को कर्ण ने सम्राट बनाया,
जरासंघ तक को पराजित कर आया।
दुर्योधन फिर भी तड़पता रहा तब,
पूरा राज्य पाने को मरता रहा तब।
द्रौपदी के स्वयंवर में,
अनेकों वीर पहूँचे थे।
दुर्योधन भी द्रौपदी को पाने की,
चाह लिए पहुँचें थे।
सूर्यांश चले मित्र को सम्मान दिलाने,
रोक दिए गए जाति के बहाने।
मित्र का अपमान, सम्राट सह न सके,
युद्ध की तैयारी फिर करने लगे।
विवाह हुआ द्रौपदी का अर्जुन से,
पहुँचे सभी आशीष लेने कुंती से।
कुंती ने कहा-“जो लाए हो, आपस में बाँट लो,
माता की आज्ञा का पालन करो ।”
धर्मराज कुछ कह न सके,
पांचाली के आंसू बहने लगे।
ब्याही गई पाँच भाइयों से,
फिर भी सती कहलाई समाज से।
उन्नति पाण्डवों की देखी न गई,
द्यूत खेलने का आमंत्रण भेजा गया।
सभा अपनी मर्यादा भूल गई,
द्रौपदी का चीरहरण किया गया।
हरि ने सम्मान की रक्षा की,
पर राज्य उनका बचा न सके।
भीष्म ने अन्याय रोकने की चेष्टा की,
पर निजधर्म के विरुद्ध जा न सके।
वनवास को चले पाण्डव,
करने को थे घनघोर ताण्डव।
वापस लौटकर अपने राज्य का माँग किया,
दुर्योधन ने सीधे मुँह से इंकार दिया।
हरि हस्तिनापुर में दूत बनकर आए ,
पाण्डवों का शांति प्रस्ताव लाए।
बोले- ” पाण्डव बड़े दिलवाले हैं ,
किसी से ईर्ष्या नहीं करने वाले हैं।
वापस उनका राज्य दे दो,
महायुद्ध को टाल दो।
दुर्योधन ने हरि का ही अनादर किया,
उनको बाँधने का प्रयत्न किया।
दुर्योधन पाँच ग्राम भी देन सका,
अनहोनी को टाल न सका।
हरि ने युद्ध का ऐलान किया,
आगे बढ़ने का, दुर्योधन को बुलावा दिया।
कुपित होकर बोले-“मनुष्य ही क्या,
मैं तो ग्रहों का भी विनाश रचता हूँ।
हर युग में अवतरित होकर,
धर्म की रक्षा करता हूँ।”
सभा छोड़ , वे इंद्रप्रस्त को लौट गए,
मानो कौरवों के भाग्य ही फूट गए।
विध्वंश की तैयारी शुरू हुई,
कुरुक्षेत्र युद्धभूमि निर्धारित हुई।
दुर्योधन ने चुना नारायणी सेना को ,
पाण्डवों ने साक्षात नारायण को।
नारायणी सेना भी उसका क्या कर सकती थी,
जिसके पास नारायण की शक्ति थी।
युद्ध का शुभारंभ हुआ ,
नरमुण्डों का गिरना प्रारंभ हुआ ।
भीष्म ने सेना का नेतृत्व किया ,
पाण्डव सेना पर बड़ा आघात किया।
भगवान वचन भूल, आगे आए,
पितामह पर सुदर्शन चलाने आए।
पार्थ से यह देखा न गया,
हरि को उसने रोक दिया।
दिन बीतते गए,
नरमुण्ड गिरते गए,
वीर मरते गए,
लोग अनाथ होते गए।
दसवाँ दिन का युद्ध आरंभ हुआ,
अर्जुन ने एक छल किया।
शिखण्डी को ढ़ाल बनाकर,
रोक दिया भीष्म को, बाणों पर लिटाकर।
आचार्य सेनापति बन सामने आए,
सेना में एक नई उमंग लाए।
युद्ध फिर-से आरंभ हुआ,
रक्तपात प्रारंभ हुआ हुआ।
आचार्य को भी छला गया,
“अश्वत्थामा मारा गया!” ऐसा कहा गया।
युधिष्ठिर ने उनका शक मिटाया,
धृष्टद्युम्न ने मिटाया अस्तित्व ।
दूसरी ओर, कर्ण को छला गया,
कवच-कुण्डल माँग लिया गया।
अभिमन्यु को भी छला गया,
नियमों के विरुद्ध जाकर मारा गया।
कुंती ने उसे एक भेद बताया,
“पाण्डव हैं तुम्हारे सगे भाई”, यह राज बताया।
कर्ण बोला –”अब यह क्यों बता रही हो?
मुझको मित्र से दूर करना क्यों चाह रही हो?
द्वार पर आई हो तो निराश मन से न जाओगी,
परन्तु छः पुत्रों की माँ नहीं बन पाओगी।
चलो, फिर भी एक वर देता हूँ ,
सिवाय अर्जुन के, चार भाइयों को जीवनदान देता हूँ।”
कुंती बोली-“महारथी तो है ही तू,
उससे भी बड़ा हठी है तू।
मैं ही बड़ी अभागी थी,
जो समाज के डर से भागी थी।”
कर्ण सेनापति बना,
दुर्योधन सारे दुख भूला।
पितामह से आशीष लेकर,
चला वह विजय धनुष लेकर।
अर्जुन से युद्ध करना चाहता था,
पल-पल उससे लडने तड़पता था।
बड़े इंतजार के बाद वो वक्त आया,
अर्जुन था उसके समक्ष खड़ा।
द्वंद्व आरंभ हुआ,
धनुषों से टंकार हुआ।
दोनों निर्भयता से लड़ते थे,
एक-दूजे पर भारी जान पड़ते थे।
सहसा, घरा में कर्ण का रथ फँस गया,
दो पल के लिए , द्वंद रुक-सा गया।
कर्ण बोला-” कुछ क्षण इंतजार करो,
तब तक शस्त्र अपने तैयार करो।”
भगवान बोले -“पार्थ! तू इंतजार न कर,
है यह एक घनघोर समर।
अगर अभी चूक जाएगा,
कर्ण को कभी न मार पाएगा।
कर्ण बोला “धर्म को मत त्यागो पार्थ,
यही है क्षत्रि य होने का सरलार्थ।
कुछ क्षण में पहिया निकाल लेता हूँ ,
युद्ध की इच्छा पूर्ण किए देता हूँ।”
हरि ने अभिमन्यु की मृत्यु को याद कराया,
“अधर्म था वो” यह कठोर सच बतलाया।
अर्जुन ने निहथ्थे पर वार किया,
शीश कर्ण का काट दिया।
दुर्योधन का परम मित्र गया मारा,
जल रही थी उसके हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला।
दुर्योधन को भी छल से मारा गया,
गदा युद्ध में जंघा पर वार किया गया।
अश्वत्थामा ने प्रतिशोध लिया,
पाण्डवों के पुत्रों को मार दिया।
उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र चलाया,
पर हरि ने था उसे बचाया।
हरि ने अश्वत्थामा को श्राप दिया,
मणि उसका छीन लिया।
बोले-“चोटिल हो भटकता रहे तू आजीवन,
पाएगा न तू कभी मरण।”
कौरवों का सर्वनाश हुआ,
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक।
अनाथ हुए लोग अनेक,
पुत्र न बचा गांधारी का कोई भी एक।
श्राप हरि को भी स्वीकारना पड़ा,
कुल का अपने, विध्वंश देखना पड़ा।
युधिष्ठिर के बाद परिक्षित राजा हुए,
हरि एक वनवासी से आहत हुए।