अहिल्या के राम से प्रश्न
छल किसने किया और कौन गया छला
अपराध किसका और दंड किसको मिला
मेरे इस प्रश्न का उत्तर आपको ही देना है
राम यदि आपने बनाया मुझे नारी
नहीं तो बना देना. मुझे पुनः एक बार शिला
क्या दोष था मेरा,
मैंने तो जीवन भर
अपने सारे कर्तव्य निभाये
भूलकर अपनी सारी कामनाएं सारी इच्छाएं
हारी भी तो मैं देह की अतृप्त कामना से
जो जागी थी छली इंद्र के गौतम वेष में
स्पर्श से ही ,कर रही थी तब भी मै
जैसे अपना कोई कर्तव्य निर्वाह ही
छल कामी इंद्र का था पर मैं तो
समझी थी गौतम को ही
मैं पूछती आज मैं आपसे हे राम
क्या मेरी निज इच्छाओं का
देह की कामनाओं का
कोई मूल्य न था
सत्य ज्ञात था समस्त गौतम को भी
देखा था स्वयं उसने अपने ही नेत्रों से
फिर ये दंड, ये शाप मुझे ही क्यों
कि प्रस्तर खंड सा हो जाएं
मेरा हृदय
जिसमें न जागे कोई इच्छाएं
शिला सी हो जाये देंह मेरी
जिसमें न जागे कोई सुप्त कामनाएं
वो ऋषि गौतम जिनके लिए
मैंने अर्पित सारा जीवन कर डाला
मुझे किंचित समझ न पाएं
मैंने तो अपने सारे संबंध
पूर्ण निष्ठा से थे निभाये
गौतम ने अपने नेत्रों से
देखा और समझा था
इंद्र का छल सारा
इंद्र तो था ही छली और कामी
शरीर मेरा था मात्र लक्ष्य उसका
पर गौतम तो थे परम ज्ञानी
क्यो़ं भूल और अपराध में
अंतर न कर पाये
जो घटा जो हुआ
वो एक भूल थी मात्र
या भूल भी क्यों
मैं तो गई थी छली
चलो मानती हूं मैं
क्षणिक क्रोध के वशीभूत
दे डाला था शाप मुझे
पर सत्य का क्या उपरांत भी
उन्हें तनिक ज्ञान न हुआ
सुधार लूं भूल अपनी
ये भी भान न हुआ
क्यूं न ली एक बार भी सुधि मेरी
क्या क्रोध की ज्वाला में
जल जाना ही ऋषि कर्म था
क्या सहधर्मिणी का त्याग, निष्ठा भूल
उसकी एक त्रुटि को आधार मान
जीवन पर्यंत शिला बनाना
ही श्रेष्ठ पति धर्म था
मैं तो गयीं थी ठगी
अपराधी तो इंद्र था
फिर गौतम मेरे लिये क्यों न लड़े
क्यों न रहे साथ मेरे खड़े
क्यो़ं न मेरे लिये न्याय मांगते
समस्त संसार से टकराये
इंद्र के जीवन को क्यो़ं न नर्क बना पाये
अपने तपोबल से क्यो़ं न
उसका सिंहासन हिला पाये
सत्य ये है
कि मेरे प्रति
ऋषि गौतम का आचरण
एक सामान्य पुरुष का आचरण
जिसमें सत्य अपनाने का साहस नहीं
भूल क्षमा का भाव ही नहीं
पुरुषोचित परंपरावादी सोच से
ऊपर उठने का साहस ही नहीं
एक नयी दृष्टि ही नहीं
कहूं क्या कायर उन्हें,
ये शब्द भी मुझे लगता
उनके लिए अब कठोर नहीं
हे राम मैं हूं ऋणी
कि आपके स्पर्श से
मेरी शिला सी देह जीवंत हो उठी
अब फिर उठेगी कामनाएं नव
अब उर में जागेगें भाव
देह में उभरेंगे पुनः
कामनाओं के ज्वार
पर मेरे विगत वर्षों को कौन लौटायेगा
मेरा न्याय तो हुआ न अब तक
मुझे न्याय कौन दिलायेगा
मैंने काटी इस निर्जन में
एकाकी कितनी नीरव निशाएं
प्रस्तर खंड था मेरा शरीर
मृत थीं सारी कोमल भावनाएं
क्यों मैं ही रही अभिशापित
परित्यक्त परित्याज्य निंदनीय
ढोती हुई
अपमान ,उपेक्षा, तिरस्कार
लेकर
जीवन भर की ग्लानि
जीवन भर का उपहास
मैं ही क्यों जीती रही
इतने वर्षों शीश झुकाये
अपराधी देवराज घूमता रहा
गर्वोन्नत शीश उठाये
देवताओं को भी पता ये
सारा दृष्टांत था
फिर भी कहां मुझे न्याय मिला
इंद्र के उऋंखल आचरण में
मौन सहमति थी क्या देवों की भी?
मुझे नहीं चाहिए
करूणा और दया
मुझे चाहिए न्याय
इंद्र और गौतम दोनों ही
हैं मेरे अपराधी
इंद्र तो था छली और पराया
देह मेरी थी लक्ष्य उसका
पर गौतम तो मेरे अपने थे
मेरे अपराधी गौतम अधिक
जिन्होनें मेरी वर्षों की
त्याग तपस्या निष्ठा का
ये मोल दिया
मैं थी संसार में सबसे रुपसी
जब गौतम के साथ बंधी थी
परिणय बंधन में
उस समय कोई भी मुझे
अपना सकता था
मैं चाहती तो किसी को भी अपना सकती थी
पर जब मैंने बंधन स्वीकारे तो निभाये
तब भी जब गौतम डूबे रहे थे
मात्र ऋषि कर्म निभाने में
मेरी इच्छाओं मेरी कामनाओं
का उनके सम्मुख कुछ मोल न था
पर मैने कभी न दी उलाहना
न भटकी कभी पथ से अपने
आपके चरण रज से राम कहने को तो मिल गई
मुक्ति मुझे पर अब क्या ये जग सहज मन से
मुझे अपना पायेगा
क्या मुझे मेरा खोया हुआ आत्मसम्मान
लौटा पायेगा
क्यो़ं वही रूढ़िवादी परंपराएं
वही रुढ़िवादी सोच
क्यों वही सड़ी गली
न्याय व्यवस्थाएं
जो ऐसे अपराधों मे भी
दोषी को दोषी न कह सकें
नारी को ही दोषी ठहराएं
पुरूष प्रायः छूट ही जाये
उसके हिस्से में तो
पीड़ा अपमान उपहास
तिरस्कार कभी न आये
ये दोहरी सोच
ये दोहरा मापदंड किसलिए
ये कौन सा है न्याय
कि अपराधी तो बच जाये
और पीड़ित जीवन भर
दंड उठाये
तुम मेरे इन प्रश्नों के
उत्तर दो
तुम ही अब न्याय करो
क्या अपराध मेरा था
जो ये दंड मुझे मिला
क्या मैं सचमुच इस दंड की भागी थी
प्रश्न कुछ और भी हैं जब गौतम ने न ली
वर्षों सुध मेरी कर दिया मेरा त्याग
तो क्या अब पूर्ण स्वतंत्र हूं
अपना जीवन स्वेच्छा से जीने के लिये
कर सकती हूँ क्या मैं
पूर्ण अपनी सारी कामनाएं
सारी इच्छाएं
क्या मैं जी लूं अपना जीवन
बंधन मुक्त
अपराधबोध मुक्त
मात्र अपने लिए
हे राम बहुत सुना आपके बारे में
समाज में पुरुषों और स्त्रियों के लिये
कुछ सम मापदंड बनाये
करें कुछ इस न्याय व्यवस्था का
मेरे प्रश्नों के उत्तर दें
हो सके तो मुझे दिलवायें न्याय
यदि इन प्रश्नों के उत्तर संभव न हों
तो मुझे पुनः शिला बनाये
जानती हूं मैं
अहिल्या की इस कथा में सदा
गौरवगान होगा आपकी चरण रज का
मेरी पीड़ाओं ,इंद्र के अपराध
गौतम के कायरता पूर्ण आचरण(मेरी दृष्टि से)
का कभी उल्लेख भी न होगा
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