किताबें
किताबें
दस बाई आठ के कमरे में मैं बैठ आज ख्यालों में व्यस्त हूं, जो कर रहा हूं उस काम को करने में मस्त हूं, किताबें मुझ में मैं किताबों में डूबने में मस्त हूं, अधीर हूं, अशांत हूं ,अगले पन्ने की बात को जानने को बेताब हूं , यह मेरी जिंदगी का एक अनोखा झरोखा है, किताबों के साथ मेज़ साझा करने का यह मौका है
आज आधुनिक युग में जहां पीड़ीफ़ की लोड है, पहले बार खुली किताब का महक भी एक भोग है , पढ़ते पढ़ते मेरा मन मानो डोला, पास रखे इतिहास की किताब में मानो मुझे बोला आओ मैं दिखाऊं तुम्हें बीते दिन का खेला, मन को समझाया रुको पहले पूरा करते हैं खोला हुआ झोला
वीर रस की बात करूं तो दिनकर के मैं पाठ करू, हंसने को जी चाहे तो काका हाथरसी का पाठ करू ,शृंगार की बात हो तो विश्वास को कैसे भूल जाएंगे , कोई पागल कोई दीवाना पर हम भी खिल जाएंगे, अब सिलेबस तक सीमित जाने को हमसे फिर ना कहना किताबों के इस सागर में डूब के हमको है रहना।
प्रियांशु सिंह