धर्म.....विचार और धारना से परे और इसका प्रतिरोध......(चिंतन शिविर से) - ZorbaBooks

धर्म…..विचार और धारना से परे और इसका प्रतिरोध……(चिंतन शिविर से)

भारत भूमि युगों से ऋषि- मुनियों का देश रहा है। इस धरा भूमि पर ऐसे-ऐसे तपस्वी हुए है, जिन्होंने सिर्फ तपस्या ही नहीं की है, बल्कि” मानव सभ्यता के उन्नयन और विकास के लिए ज्ञान- विज्ञान के अलौकिक केंद्र को मानवों को उपहार स्वरूप प्रदान किया है। आज भले ही, पश्चिमी सभ्यता अथवा’ उनके केंद्र सत्ता द्वारा कहा जा रहा हो कि’ जितनी भी खोजे की जा रही है, उन्होंने की है। परन्तु….उनका कहना कदापि भी उचित नहीं कहा जा सकता। माना कि” आज मीडिया का युग है और मीडिया जो कहे, वह सत्य माना जाता है। परन्तु….आज तक जितनी भी खोजे की गई है, अथवा की जा रही है, उसे हमारे मनीषियों ने हजारों वर्ष पहले सत्यापित कर दिया था।

यद्यपि’ आज यह चर्चा का विषय है ही नहीं, परन्तु….जिसकी चर्चा हमें शुरु करनी है, उसके संदर्भ में इन बातों को रखने की जरूरत थी। अब” धर्म है क्या?….प्रश्न गुढ है और यथार्थ को लेकर भी और इसका सहज उत्तर होगा कि” जिसे हम धारण कर सके। जी हा’ जीवन को उपयुक्त तरीके से जीने की प्रक्रिया को ही धर्म कहते है। हम जो आचरण करते है, दूसरों के प्रति व्यवहार और विचार रखते है, वही धर्म और अधर्म की श्रेणी में विभाजित हो जाता है। हमारे मनीषियों ने मानव को सहज रुप से जीने के लिए एक रेखाएँ खींची, एक नियम बनाया और उसे धर्म नाम दिया। क्योंकि” वह मानव को धारण करने के लिए बनाया गया था।

धर्म का स्वरूप इतना जटिल भी नहीं कि” हम इसे समझ ही नहीं पाए और यह इतना सहज भी नहीं कि” बिना प्रयास के ही इसे समझ जाए। तभी तो’ इसकी नकल कर के अनेकों धर्म की स्थापना की गई। परन्तु….उसे धर्म कहा ही नहीं जा सकता’ क्योंकि” प्रकृति का नियम है कि” सृष्टि के सभी जीवों के साथ समान रुप से व्यवहार करती है। बस’ जो प्रकृति के इन गुणों को अपने हृदय में समेटे हुए है, वही धर्म है। क्योंकि” मानव में मानवीय गुणों की आवश्यकता होती है और मानवीय गुण है, जीव जगत के प्रति दया और करुणा का भाव रखना। अपने वृति में परोपकार के गुणों का समावेश करना।

धर्म सिर्फ धारना के द्वारा ही न तो सत्यापित किया जा सकता है और न ही विचार” की उपाधि में समेटा जा सकता है। ईश्वर की सकल सृष्टि बनाई हुई है और इस सृष्टि में हम भी है। इस कारण से उनका स्मरण करना, उनके नामों का गुणानुवाद करना और अपने दैनिक जीवन में ईश्वर की अनुभूति करना, यह दायित्व है, जिसका निर्वहन करना जरूरी है। परन्तु…धर्म यही तक सिमटा हुआ नहीं है। धर्म” सरल होते हुए भी अति गुढ है और धारण करने योग्य होते हुए भी विशाल और विराट है। इसे परिभाषा के द्वारा न तो पन्नों पर उकेरा जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या पूर्ण हो सकती है।

आज’ जिस तरह से धर्म” को सिर्फ सनातन का अंग समझ कर इसका उपहास किया जाता है, वह कदापि उचित नहीं। जिस तरह से धर्म के विरुद्ध प्रोपगेंडा चलाए जाते है और इसके विरोध में नैरेटिव” तैयार की जाती है, उसे मानव का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। माना कि” सनातन संस्कृति और धर्म’ दोनों अभिन्न है। एक के बिना दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। परन्तु….धर्म…तो सनातन संस्कृति से भी विशेष, विशाल और विराट है। मैंने पहले ही कहा कि” धारण जो करने योग्य है, वही धर्म है। जो हमें जीवन जीने के लिए सही राह बताए और जीव जगत के प्रति प्रेम सिखाए, वही धर्म है।

आज- कल, कुछ विशेष व्यक्ति, कुछ विशेष संस्था के द्वारा धर्म मतलब कि” हिन्दू’ अथवा हिन्दू धर्म की उपाधि से इसे अलंकृत किए हुए है। मैंने पहले ही तो कहा है कि” धर्म एक ही है, जो युगों से चला आ रहा है और वो है मानव धर्म’ जीव जगत के प्रति करुणा और प्रेम के प्रवाह रुपी भाव का नाम है धर्म। जो’ सनातन संस्कृति का अंग है। धर्म सिर्फ एक संस्था या संस्कृति का ही बोध नहीं कराती, अपितु जीव जगत के लिए निर्धारित नियमों का अनुमोदन करती है। धर्म सिर्फ मंदिर, मस्जिद या गिरिजा घरों में कैद होकर रहने बाली वस्तु का नाम नहीं है और जब तक हम यह समझ नहीं जाते, मानव कहलाने योग्य नहीं समझे जा सकते।

जब तक हम संप्रदाय अथवा संस्थाओं में उलझे रहेंगे, धर्म” के तत्व को पाने से दूर ही रहेंगे। साथ ही’ सिर्फ विरोध या प्रतिरोध करने से ही इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता। साथ ही गर्व के साथ कह सकता हूं कि” हमारी सनातन संस्कृति धर्म के इस भाव का सहज ही अनुमोदन करती है। हमारी संस्कृति’ इस बात को सहज ही स्वीकारती है कि” धर्म” जगत के कल्याण की धारना को घोषित करती है। मानव के सकल विकास की बातें कहती है और सहज ही जीवन से तादात्म्य भी बिठाती है। धर्म’ विशुद्ध भाव है हृदय का, जो सकल सृष्टि के लाभ की घोषणा करती है।

क्रमश:-

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मदन मोहन'मैत्रेय'