पारिवारिक दायित्वों का अभाव और आज के युवा....(चिंतन शिविर से) - ZorbaBooks

पारिवारिक दायित्वों का अभाव और आज के युवा….(चिंतन शिविर से)

आज की स्थिति को बहुत ही विषम कहा जा सकता है। क्योंकि ‘ आज यह कहना अति मुश्किल है कि” आज के युवा चाहते क्या है?….यह सिर्फ प्रश्न ही नहीं है, साथ ही चुभता हुआ कांटों का सेज है, जो समाज को, परिवार को और देश को विदीर्ण करने पर तुला हुआ है। मैं सिर्फ कहने के लिए नहीं लिख रहा हूं, बल्कि” वास्तविकता ही यही है। आज- कल युवा जो स्वच्छंद होते जा रहे है, वह अच्छे संकेत तो बिल्कुल भी नहीं है। इस बात से अनभिज्ञ रहने का भी समय नहीं रह गया है, क्योंकि” हालात ही कुछ ऐसे बनते जा रहे है। आज-कल के युवा( ज्यादातर शहरी और खुद को ज्यादा पढे-लिखे बोलने बाले) अतिशय स्वच्छंद होते जा रहे है।

आज-कल समाज में एक चलन जोरों पर है और वो है प्रेम प्रकरण। जी नहीं, मैं प्रेम के विरुद्ध तो बिल्कुल भी नहीं हूं, इस कारण से भी कि” बिना प्रेम के संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परन्तु….प्रेम में सात्विक तत्व का समावेश हो और एक दूसरे के प्रति वफादारी भी। किन्तु” आज प्रेम सिर्फ और सिर्फ आकर्षण के लिए किया जाता है, जिसके केंद्र में सिर्फ वासनाओं का ज्वार होता है। अब जहां सिर्फ वासनाएँ ही है, वहां पर मंगल कामना करना ही व्यर्थ है। तभी तो’ आए दिन इसके परिणाम हमारे सामने आ रहे है, परन्तु….हम है कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। 

बात प्रेम की नहीं, बल्कि बिगड़ चुकी मानसिकता की है। क्योंकि’ बाजार वाद के प्रवाह ने युवाओं के भावनाओं को अति ही भड़का दिया है। एक विचार धारा’ जो शायद भारतीय संस्कृति की धूर-विरोधी है, ने नए प्रकार के ही विचार को जन्म दिया है। जिसके भाग रुप सिनेमाओं एवं बहुत से मीडिया हाउसों में अश्लीलता को परोसा जाता है, कहीं कम तो कहीं पर ज्यादा। उसपर नेट का जमाना और युवाओं के बहके हुए उन्मत भावनाओं को प्रोत्साहन देता हुआ लेख कुछ बौद्धिकों के द्वारा लिखा जाना। अगर सत्य कहा जाए, तो कुछ भी तो सकारात्मक नहीं है आज-कल।

आज जिस तरह से लीव इन रिलेशनशीप को जायज बताया जा रहा है, जिस तरह से बिना विवाह बंधन में बंधे हुए शरीर सुख पाने को सही ठहराया जा रहा है, वह बहुत ही दूरगामी परिणाम देने बाला है। जो हमारे सभ्यता, संस्कृति और संस्कार ,तीनों का ही विनाश कर देगा। आज जिस तरह से युवाओं को उत्तेजक कोंटेंट सहज ही देखने, पढने और सुनने के लिए उपलब्ध है न, वह कहीं से भी कल्याणकारी नहीं है। आज तो’ सरकार के संरक्षण में ही विभिन्न संस्थाएँ ओ. टी. टी. पर कामोत्तेजक वेब सीरिज प्रसारित करती है। कहने को तो यह बिजनेस है और मनोरंजन के लिए है, परन्तु….यह हमारे समाज और सभ्यता के लिए घातक विष के जैसा है।

आज-कल घटनाएँ आम सी हो गई है कि” प्रेमी और प्रेमिकाएँ खेत में मिले, होटल में मिले या और कहीं, वासना का आचरण करने के बाद उन्होंने वीडियो विभिन्न साइटों पर अपलोड कर दिया। अब यह घटना इतनी सामान्य हो गई है कि” ज्यादातर मामले तो पुलिस जान ही नहीं पाती। इससे भी बढकर अब युवा लीव इन रिलेशनशीप में बिना शादी के ही साथ रहने लगे है और अपनी वासनाओं को पूरा करने लगे है। साथ ही’ प्रेम में धोखा और ज्यादातर मामलों में हत्याओं का अंजाम दिया जाना ,भयभीत करने बाला और विस्मयकारी भी है।

आज-कल जिस तरह से लव जिहाद की बातें की जा रही है, वह भी तो तथ्य विहिन नहीं हो सकता है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि” यह विचार उठे, आज का युवा किधर की ओर जा रहा है? प्रश्न है और व्यर्थ भी नहीं है ये प्रश्न। क्योंकि’ परिस्थिति बेहद ही असंतोष जनक और भयकारी है। लेकिन’ यह परिस्थिति ऐसे ही नहीं अचानक ही उत्पन्न हो गया है। इसके लिए हम और आप भी बराबर के ही जिम्मेदार है। क्योंकि” आज जिस तरह से पारिवारिक दायित्वों का हास हो रहा है, उससे ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

आज के समय में ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को कुछ अधिक ही छूट दे देते है, अथवा जिम्मेदारी से बचते दिखते है। उन्हें या तो यह लगता है कि” बच्चों को उनके जरूरत की सभी वस्तुएँ मुहैया करा दी, बस जिम्मेदारी खतम। अथवा’ तो उन्हें फुर्सत ही नहीं होता कि” देख सके, उनका बच्चा कर क्या रहा है?….साथ ही कुछ अभिभावक तो’ अपने बच्चों की गलतियों पर आँख मुंद लेते है, जैसे मूक समर्थन दे रहे हो। फिर जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है, तब लकीर पीटते रह जाते है। वे दूसरों का दोष ढूंढने लगते है, परन्तु…भूल जाते है कि” वह अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने में असफल रहे है।

और एक बात’ आज- कल जिस तरह से छोटे परिवार की बात की जाती है, बहुतो ने इसके अर्थ में सम्मिलित परिवार से नाता तोड़ लिया है। पहले संयुक्त परिवार होता था, तो बच्चे वैसे भी अनुशासन के अधीन होते थे और धीरे-धीरे संस्कारी भी हो जाते थे। परन्तु….फिलहाल इसका अभाव पाया जाता है, जिसके अभाव में युवा अनुशासन के अध्याय सीख ही नहीं पाते और उद्दंड होते चले जाते है।

क्रमश:-

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मदन मोहन'मैत्रेय'