घनी अंधेरी रातों का वह तिलिस्म…….
घनी अंधेरी रातों का वह तिलिस्म।
भय का बोध कराने को तत्पर।
टिमटिमाती जुगनूएँ कभी प्रकाश बिखेर।
तिमिर के समूह पर करती है प्रहार।
फिर भी’ अंधकार का फैलाव लिए व्यास।
जो भ्रमित भावनाओं की तरह लगती उदास।।
रात की वह कालिमा सी चादर’ का फैलाव।
आसमान में टिमटिमाते तारों का झुंड अब।
तत्परता के साथ प्रकाश का करते बहाव।
जैसे तिमिर को वेधने के लिए करते हो प्रहार।
सुषुप्त है जीव जगत’ रात का चलता विलास।
जो भ्रमित भावनाओं की तरह लगती है उदास।।
अतिशय’ की इच्छाओं में लिपटा हो, जैसे लोभ।
अंधेरे का है रात से ऐसा ही बंधा हुआ गठजोड़।
काश’ कि भ्रमणाओं के तिमिर में उठे हिलोर।
सहज हो प्रकाश, आए रश्मि किरण लिए भोर।
उम्मीदों के शिखर पर’ चमकता हुआ हो आभास।
जो भ्रमित भावनाओं की तरह लगती है उदास।।
रहस्य के बोध भाव सा, रात का विषम अंधकार।
दूर-दूर तक निःशब्द, हृदय में जैसे हो विषम भार।
कहीं चमत्कार हो, किरण के आने का खुले द्वार।
आक्रोशित सा है जो’ थमें तिमिर का तीक्ष्ण वार।
अंधेरी रातों का बोझ’ जैसे अचानक हो अधिक मास।
जो भ्रमित भावनाओं की तरह लगती है उदास।।
घनी रातों का विषम व्यास’ समेटे हुए हो तिलिस्म।
द्वंद्व के जैसे’ दुविधा लिए हो’ विडंबना का बोध।
अभी तो’ हो जाएगा चमत्कार’ रश्मि किरण आने पर।
जीवन का नूतन प्रभाव फिर सक्रिय होगा निर्विरोध।
अभी तो’ रात का प्रहर निकालती है मन की भड़ास।
जो भ्रमित भावनाओं का तरह लगती है उदास।।