निजता’ उस सरल बिंदु पर चाहूंगा…..
निजता” उस सरल बिंदु पर चाहूंगा।
मन मंथन करने को होऊँ तत्पर।
इच्छाएँ जो अति विशेष, भाव से हटकर।
रह लूंगा वह क्षण, दुविधा से कटकर।
खुद को जानूं’ मन में कोमल गुण आन सकूं।
सहृदय बनूं पथ पर’ खुद से हठ को ठान सकूं।।
निराधार ही अब तक’ शब्दों को तोल रहा था।
वाण के जैसे तीक्ष्ण, विष मय बोल रहा था।
कड़वाहट शब्दों का पाक’ पथ पर ढोल रहा था।
अब तक अंजान था खुद से, ऐसे ही डोल रहा था।
आने बाले पल के भय से दूरी संधान सकूं।
सहृदय बनूं पथ पर’ खुद से हठ को ठान सकूं ।।
वह निजता के क्षण, स्वभाव का उपचार करूं।
दुश्चिंता के हो भाव अगर’ सही-सही व्यवहार करु।
जीवन’ उपमानों में ना उलझे, ऐसा ही श्रृंगार करुं।
मानव’ हूं, मानक गुण समय के रहते शिरोधार्य करुं।
सहज भाव से मानव बन, जीवन से अमृत छान सकूं।
सहृदय बनूं पथ पर, खुद से हठ को ठान सकूं।।
कोमल सा पुष्प गुच्छ’ बन जाऊँ, इच्छित जो है।
सुलभ प्रयास के बल पर खुद को जान जो जाऊँ।
हो पथ पर उत्कर्ष, जो सही-सही कदम उठाऊँ।
होकर सभान पथ पर, अपने नैतिक कर्म निभाऊँ।
अहो! व्यर्थ अलाप क्यों? जो खुद को विस्मृत मान सकूं।
सहृदय बनूं पथ पर, खुद से हठ को ठान सकूं।।
निजता का मुल मंत्र” पढ़कर खुद को जान सकूंगा।
अनायास ही घात मिले तो’ चमत्कृत भाव नहीं होगा।
तृष्णा जो बलवती होगी, तनिक प्रभाव नहीं होगा।
शांत सरल चल पाऊँगा, आगे किंचित दबाव नहीं होगा।
जो दुविधाओं से लिपटी हो, उन तत्वों को जान सकूं।
सहृदय बनूं पथ पर’ खुद से हठ को ठान सकूं।।