आफ़ताब - ZorbaBooks

आफ़ताब

ये कहानी है एक लड़की की है अँधेरा उसका बसेरा था, जिस दुनिया में वो रहती थी कम होता वहाँ सवेरा था, अपनी खुशियों को अक्सर खोजती थी, वो हंसी के सहारे गम को छुपाती थी।

उसे चांद ना पसंद था ज्यादा कुछ, पर लोगो को उससे मोहब्बत करते देख वो भी कोशिश हर रोज करती उसे चाहने की, कभी चाह ना पाई उसे। एक रोज़ अपनी किताबों में कविताएँ लिखते-लिखते सो गई, उठी तो उसकी खिड़की पर किसी अंजान रोशनी का पहरा था अँधेरे में रहती थी वो अक्सर, आज हुआ सवेरा था, देखा उसने अपनी खिड़की पर एक सूरज की रोशनी को आते, रोशनी जो उसके कमरे में आ उसकी किताबों को छू कर उसकी कविताओं के अक्षरों को सुनहरा बना दिया, देखा बाहर तो आसमान गुलाबी था, आसमान में आज न था अंधेरा, था तो एक लाल उजाला, मोहब्बत हो गई, उस सवेरे से ,उससूरज से, जबतक वो उजाला न गया निहारती रही वो सवेरे को,

पर दुनिया ये नहीं अपनी, उसको जिसने सुकून दिया वो तो था सवेरा पर जिस दुनिया में वो थी वहां था तो बस अँधेरा, उसने सोचा मुझे पाना है उसे सूरज को ना चाहिए मुझे चाँद। अपने घर वालों को बताएं उसने ये बात, तुम चांद को कैसे नकार सकती हो, कैसे तुम सूरज को अपना सकती हो, समाज क्या कहेगा हमें, हम क्या मुंह दिखाएंगे, तुम्हारी चाहत को लोग कभी ना अपनाएंगे, जंजीरों में बंद कर उसे दुनिया ने उसको दबा दिया, वो सपना जो था सूरज पाने का उसने अपने आसुओं में बहा दिया, उसके कमरे पर उसकी खिड़की को हटा अब दीवार लग गई,अब उसे ना दिखती थी वो सूरज की लाली थी बस अब रातें खाली और काली, एक दर्पण था जिसमें थी तो बस चाँद की परछाई, वो अब किस्मत से हार चुकी थी ना था कोई उसके पास, ना आती कोई आवाज़, बस था तो तो सन्नाटा और वो दर्पण जिसमें दिखती थी चाँद की परचायी, वो फिर अपनी आखें नम कर सो गई।अगले दिन फिर हुआ वो सवेरा, उसकी आखों में उस दर्पण से फिर आई वो रोशनी, इस बार उसने देखा कि वो रोशनी उसकी भूरी आखों को सुनहरा कर गई थी, उस रोशनी ने एक बार फिर उन किताबों को उजाला दे दिया था, उसके ठंडी से ठिठुरते शरीर को गर्माहट मिलने लगी. इस बार वो ना डरी ना घबराई बस चल पड़ी उस रोशनी के पीछे देखा तो दिखा उसे वो सूरज और मिल गया उसे अपना सुकून, अपना लिया उसने खुदको और अपनी मोहब्बत को, और जब खुदको अपना लिया तो दुनिया नकारे क्या फर्क पड़ता है।

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Nainsy Shrivastava
Uttar Pradesh