नामों निशान
सुबह से शाम हुई, शाम से रात अंधेरी
रात से फिर सुबह मगर, तेरा कहीं कोई नामों निशां ही नहीं
मैं रुका ही रहूं की चला जाऊं है उलझन
ज़मीं तो रही नहीं अब पैरों तले
तेरे ना आने से लगता है
जैसे सर पे आसमां भी नहीं
तेरा कहीं कोई नामों निशां ही नहीं।