मेरी कलम और काली रात
*मेरी कलम और काली रात*
आज फिर वह काली रात आई है
अंधियारा चारों तरफ छाई है
रोशनी देने वालों को जाने किसने मोहनी सुंघाई है, इस अंधेरी आधी रात में करते हैं हम दोनों बात मेरी कलम और काली रात ।
समाज के बने बंदिशों में , नियम कानून के रंजिशो में, जाने वह कौन सी चेतना जागती है , जो रात को मुझे जागती है , हाथ में कलम और डायरी लेकर बैठाती है , फिर जाने कितने मुद्दों को मन के अंदर चलाती है , नेता ,समाज ,महिला, दलित ,छोटा ,बड़ा जाने कितने पर चलती है बात मेरी कलम और काली रात
आज मन में एक मुद्दा आया, फिर मन ने आधी रात में हाथों में कलम थमाया, और फिर पूछा ये समाज में रह पाता कौन, मैने कहा समाज में वह रह पाता है जो समय के पहले पार्टी चुन पता है, फिर पार्टी के सिद्धांत के अनुसार ढल जाता है, समय-समय पर भगवान को सत्य असत्य ठहराता है , खुद के गलत होने पर जो अपने वाणी को ऊंचा स्वर लगता है, हे मन ना समझ पाया तू इतनी सी बात मेरी कलम और काली रात