दर्द कागज पर मेरा बिकता रहा..! - ZorbaBooks

दर्द कागज पर मेरा बिकता रहा..!

दर्द कागज पर मेरा बिकता रहा … 
मैं बेचैन था रातभर लिखता रहा…. ! 
छू रहें थें सब बुलंदियाँ आसमान की… 
मैं सितारों के बीच चांद की तरह छिपता रहा..! 
अकड़ होती तो कब का टूट गया होता …. 
मैं था नाजुक डाली
जो सबके आगे झुकता रहा …! 
बदलें यहाँ लोगों ने रंग अपने-अपने  ढंग से … 
रंग मेरा भी निखरा पर
 मैं मेंहदी की तरह पिसता  रहा … ! 
जिनको जल्दी थी वो
 बढ़ चलें मंजिल की ओर… 
मैं समंदर से राज 
गहराई के सीखता रहा…! 

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Rahul kiran
Bihar