गीत कितने लिख दिए तुम पर…!
गीत कितने लिख दिए तुम पर ,
कभी भी
गुनगुनाने का तुम्हारा मन नहीं करता?
लिख दिया जिनमें कड़कती
घनप्रिया का नाद हमने
लिख दिया झम-झम बरसते
मेघ का अह्लाद मैंने!
तुम उपेक्षित कर इन्हें
औंधे पड़े हो फेर कर मुख !
मैं हजारो बार यूँ आवाज देकर थक गया हूँ
और तुम चुप ,
मौन से क्या मन नहीं भरता तुम्हारा ?
तुम कई सूरज छिपाए बैठे
मधुर मुस्कान में ही
कर रहे लेकिन कृपणता एक
रवि के दान में ही !
क्या स्वयं को गीत में सुन
न होता है हर्ष तुमको !
बावला मैं भी लगा हूँ
मन मनाने मारने में !
थक चुका मैं पर हठी
ये मन नही भरता !
रख दिए थे कुछ सुवासित
गीत सिरहाने तुम्हारे !
भोर में छू कर तुम्हें फिर
खिल गये हैं बंध सारे !
ये कहीं अवहेलना की धूप
में न मुरझा जाएं!
फूल से हैं गीत मेरे तुम
ज़रा सा ध्यान दे दो
देख लो न फूल से है रंज झरता !
रंज- पराग