आत्ममंथन
चलो बाहर,
इस अंधेरे कमरे से
बाहर की खुली दुनिया देखो।
हवाओ की मंद आहाटों में
जहाँ सब स्थिर हो,
खुले किताब के पन्ने
अपनी आजादी दिखाते हैं,
रस्सी पर लटके कपडे़
अपनी मस्ती दिखाते है,
हवा की लहरें भी
मधुरगान करती हैं।
जाने कब से तुमने,
इन छोटी बातों को
गौर नहीं किया ।
सुरज का बादल में
छिप जाना भी,
एक स्वप्न-सा लगता है।
क्या तुमने कभी
पीछा किया है
सूरज के छिप जाने से
उस थोड़ी दूर के छाँव का?
कभी कर के देखना
यह बिल्कुल वैसा ही है
जैसे जिंदगी के पीछे हम
किसी शांत जगह पर,
कभी अकेले में
खुद से मिलकर देखना,
तुम ढूंढ सकते हो
अपने आप को।
खोये हुए तुम खुद हो
फिर किसे तलाशने चले हो?
क्या लगता है
जिंदगी कितनी बड़ी होगी?
अपना एक-एक् पल
झूम के जियो,
ऐसे जियो की मानों
दुनिया एक खुला आसमान
और तुम एक
आजाद पंछी
पिंजरे से बाहर
पर उस जाल से सतर्क
जिसपे मोह बिछा है।
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This is my first poem. If you find any mistake, please comment. I will surely attend that.