पिन्हा
लगा रहता था आना जाना जिन राहों पे कल तक मेरा ,
आज उनके लिए हम अग्यार हो गए ।
आए थे वीरान छोड़कर घर को अपने राहों से मिलने को ,
लगाने आग उस घर को मेरे लोग तैयार हो गए।
सजाए थे सपने कुछ उन राहों पे चलते हुए,चौराहे पर एक शमां क्या मिली सारे खाकसार हो गए।
मारते थे ताने लोग महफ़िल में चुप्पी पर मेरी ,हमने जुबाँ क्या खोली सब बेकरार हो गए।
आए थे लोग जगाने हमे दिखा के सूरज भोर का ,
हम बता के ढलती शाम उसको फिर से सो गए।