आधुनिकता की दौर - ZorbaBooks

आधुनिकता की दौर

विकास की अंधी दौड़ में घुट रहा इंसान है,

प्रदूषित हवा से आज दम तोड़ रहा इंसान है।

लाखों टावरों से निकला रेडिएशन,

प्रभावित कर रहा जनजीवन को,

कैंसर, थायरॉयड, हृदयरोग का शिकार बना रहा इंसान को,

भाग रहे हैं पशु पक्षी भी छोड़ अपना आशियाना,

न मिल रहा उन्हें रहने का कोई ठिकाना।

इन सब से अंजान,

बढ़ रहा आधुनिकीकरण की ओर इंसान।

जल में मछली तड़प रही, नभ में पंछी झुलस रहे,

धरती पर है मानव बिलख रहे,

नभ, घटा, वन, नदी, पवन हो रहे जहरीले,

इन सब से अंजान,

बढ़ रहा आधुनिकीकरण की ओर इंसान।

प्रकृति की गोद में खेलती दुनिया, छल रही है प्रकृति को,

कट रहे हैं वृक्ष सारे, खोखली कर रही है धरती को।

उद्योगों के विस्तार से, वाहनों की चहलकदमी से,

जनसंख्या के बढ़ने से, प्रदूषित ये संसार है।

इन सब से अंजान,

बढ़ रहा आधुनिकीकरण की और इंसान।

लालच की चादर ओढ़े दुनिया,

बना रही नफरत की दीवारें।

बारूद की ढेर पर खड़ी इस दुनिया को,

राख कर जाएगी बस इक चिंगारी।

नशे में डूबे बच्चे, गले लग रहे सट्टेबाजों से,

जुल्म की दुनिया को अपनाकर, दूर हो रहे परिवारों से।

देश का भविष्य गिरते जा रहे हैं खाई में,

दौलत और नफरत के खातिर अपनों से बगावत कर जाते हैं,

माथे पर उनके कलंक मढ जाते हैं।

सच्चाई को आज पैसों से खरीदा जाता है,

ईमानदारी बाजारों में खुलेआम बिक जाता है।

इस छल-फरेब की दुनिया में मिथ्या का बोलबाला है,

चारों तरफ बुराईयों की आँधी नजर आता है,

इंसान ही इंसान का दुश्मन बनता जाता है।

निर्धनों के पेट काट अमीरों के महल बनाये जाते हैं,

मजदूरों के हक को पैरों तले कुचले जाते हैं।

इंसान की मदद करने से इंसान कतराता है,

सत्ता के बल पर बेसहारों को दबाया जाता है।

भूख से बिलखते मासूमों को रोटी की दरकार है,

वृद्धजनों को इक लाठी की आस है,

फुटपाथों पर सोये गरीबों को छत की तलाश है,

इसे नकार दुनिया बना रही परमाणु हथियार है।

ये कैसा विकास है, कैसा विश्व का स्वरूप है,

आधुनिकीकरण के दौर में, जल रहा प्रकाश है।

लग गए हैं दीमक इंसान के विचारों में,

जला दिए जाते हैं सच को श्मशानों में।

इस डिजिटलीकरण के युग में, सुध-बुध खो रहा इंसान,

अपना आज भूल, कल के लिए भाग रहा इंसान।

डर रहे हैं बुद्धिजीवी कहीं इंसान ही, न रहे इंसान,

बेतहाशा भागते-भागते, बनकर न रह जाय एक रोबोट।

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Sristi Mishra
Bihar