Description
अब दिन ढलने को है क्षितिज फिर लाल होने को है पराजित फिर धरा छाती फिर तम की कजली दिन भर के सफ़र से मेरी सोच है बदली ढलते सूरज की लाली अब ढाढ़स बढाती है डूबना भी नियति है समझाती है | मै फिर सोच में हूँ कल का सूरज कैसा दिखेगा ? कुछ गाढ़े रक्त जैसा धरती को सहेजने में लगा लहू बहाता सा या बादलों की ओट में छिपा गुनगुना अहसास दिलाता | मुझे इंतजार रहता है सोचने का तपने का सूरज के उगने का और फिर सूरज के ढलने का…………….| |
About The Author
विंग कमांडर बिमल वरन बडूनी भारतीय वायु सेना के भूतपूर्व हेलीकाप्टर पायलट हैं | वायु सेना मे काम करते हुए उन्होने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है | वायुसेना से अवकाश लेने के उपरांत वर्तमान मे वे पवनहंस हैलिकौप्टर्स मे कार्यरत हैं | लगभग दस हजार घंटों का उड़ान अनुभव एक पायलट के रूप मे उनकी व्यस्तता को दर्शाता है | फिर भी कविताओं के प्रति रुझान उन्हे हिन्दी तथा अँग्रेजी दोनों भाषाओं मे लिखने को प्रेरित करता रहा है | पथिक चुपचाप उनका प्रकाशित होने वाला पहला कविता संग्रह है |